★महारानी लक्ष्मीबाई-(झाँसी की रानी)★

शीर्षक: महारानी लक्ष्मीबाई (झाँसी की रानी)

उपनाम :मणिकर्णिका, मनु
जन्मस्थल :वाराणसी, उत्तर प्रदेश
मृत्युस्थल :ग्वालियर, मध्य प्रदेश
आन्दोलन :भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
जन्म : 19 नवम्बर 1835
मृत्यु : 17 जून 1858
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मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की वीरांगना थीं जिन्होंने मात्र 23 वर्ष की आयु में ब्रिटिश साम्राज्य की सेना से संग्राम किया और रणक्षेत्र में वीरगति प्राप्त की किन्तु जीते जी अंग्रेजों को अपनी झाँसी पर कब्जा नहीं करने दिया।
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                     ★संक्षिप्त जीवनी★
लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी जिले के भदैनी नामक नगर में 19 नवम्बर 1835 को हुआ था। इनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था लेकिन प्यार से उसे मनू कहा जाता था। मनु की माँ का नाम भागीरथीबाई तथा पिता का नाम मोरोपंत तांबे था। मोरोपन्त एक मराठी थे और मराठा बाजीराव की सेवा में थे। माता भागीरथीबाई एक सुसंस्कृत, बुद्धिमान एवं धार्मिक महिला थीं। मनु जब चार वर्ष की थी तब उनकी माँ की मृत्यु हो गयी। चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिये कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गये जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया। लोग उसे प्यार से "छबीली" कहकर बुलाने लगे। मनु ने बचपन में शास्त्रों की शिक्षा के साथ शस्त्रों की शिक्षा भी ली। सन् 1842 में उनका विवाह झाँसी के मराठा शासित  राजा गंगाधर राव निम्बालकर के साथ हुआ और वे झासी की रानी बनीं। विवाह के बाद उनका नाम "लक्ष्मीबाई" रखा गया। सन् 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया पर चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवम्बर 1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी। दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया।

ब्रिटिश राज ने बालक दामोदर रदालत में मुकदमा दायर कर दिया। यद्यपि मुकदमे में बहुत बहस हुई परन्तु इसे खारिज कर दिया गया। ब्रितानी अधिकारियों ने राज्य का खजाना ज़ब्त कर लिया और उनके पति के कर्ज़ को रानी के सालाना खर्च में से काटने का फरमान जारी कर दिया। इसके परिणामस्वरूप रानी को झाँसी का किला छोड़ कर झाँसी के रानीमहल में जाना पड़ा। पर रानी लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी और उन्होनें हर हाल में झाँसी राज्य की रक्षा करने का निश्चय किया।

झाँसी 1857 के संग्राम का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिंसा भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भर्ती की गयी और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया। साधारण जनता ने भी इस संग्राम में सहयोग दिया। झलकारी बाई जो लक्ष्मीबाई की हमशक्ल थी को उसने अपनी सेना में प्रमुख स्थान दिया।

1857 के सितम्बर तथा अक्टूबर माह में पड़ोसी राज्य ओरछा (म्.प्र) तथा दतिया(म्.प्र)के राजाओं ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया। 1858 के जनवरी माह में ब्रितानी सेना ने झाँसी की ओर बढ़ना शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को घेर लिया। दो हफ़्तों की लड़ाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर कब्जा कर लिया। परन्तु रानी दामोदर राव के साथ अंग्रेजों से बच कर भाग निकलने में सफल हो गयी। रानी झाँसी से भाग कर कालपी पहुँची और तात्या टोपे से मिली।

तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओं ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक किले पर कब्जा कर लिया। 17 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में ब्रिटिश सेना से लड़ते-लड़ते रानी लक्ष्मीबाई ने वीरगति प्राप्त की।

अंग्रेज़ आठ दिनों तक क़िले पर गोले बरसाते रहे परन्तु क़िला न जीत सके। रानी एवं उनकी प्रजा ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि अन्तिम सांस तक क़िले की रक्षा करेंगे। अंग्रेज़ सेनापति ह्यूरोज़ ने अनुभव किया कि सैन्य-बल से क़िला जीतना सम्भव नहीं है। अत: उसने कूटनीति का प्रयोग किया और झाँसी के ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को मिला लिया जिसने क़िले का दक्षिणी द्वार खोल दिया। फिरंगी सेना क़िले में घुस गई और लूटपाट तथा हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया। घोड़े पर सवार, दाहिने हाथ में नंगी तलवार लिए, पीठ पर पुत्र को बाँधे हुए रानी ने रणचण्डी का रूप धारण कर लिया और शत्रु दल संहार करने लगीं। झाँसी के वीर सैनिक भी शत्रुओं पर टूट पड़े। जय भवानी और हर-हर महादेव के उद्घोष से रणभूमि गूँज उठी। किन्तु झाँसी की सेना अंग्रेज़ों की तुलना में छोटी थी। रानी अंग्रेज़ों से घिर गयीं। कुछ विश्वासपात्रों की सलाह पर रानी कालपी की ओर बढ़ चलीं। दुर्भाग्य से एक गोली रानी के पैर में लगी और उनकी गति कुछ धीमी हुई। अंग्रेज़ सैनिक उनके समीप आ गए। रानी ने अपना घोड़ा दौड़ाया पर दुर्भाग्य से मार्ग में एक नाला आ गया। घोड़ा नाला पार न कर सका, तभी अंग्रेज़ घुड़सवार वहाँ आ गए। एक ने पीछे से रानी के सिर पर प्रहार किया जिससे रानी बुरी तरह से घायल हो गईं, उसी समय दूसरे गोरे सैनिक ने संगीन से उनके हृदय पर वार कर दिया। अत्यन्त घायल होने पर भी रानी अपनी तलवार चलाती रहीं और उन्होंने दोनों आक्रमणकारियों का वध कर डाला। फिर वे स्वयं भूमि पर गिर पड़ी।

पठान सरदार गौस ख़ाँ अब भी रानी के साथ था। उसका रौद्र रूप देख कर गोरे भाग खड़े हुए। स्वामिभक्त रामराव देशमुख अन्त तक रानी के साथ थे। उन्होंने रानी के रक्त रंजित शरीर को समीप ही बाबा गंगादास की कुटिया में पहुँचाया। रानी ने व्यथा से व्याकुल हो जल माँगा और बाबा गंगादास ने उन्हें जल पिलाया। वे अपने सम्मान के प्रति सदैव सजग रही, उन्होंने यही कामना की कि यदि वे रणभूमि में लड़ते-लड़ते मृत्यु को वरन करें तब भी उनका शव अंग्रेजों के हाथ न लगे। अदभुत और अद्मय साहस से अंतिम सांस तक युद्ध करने वाली विरांगना ने  अन्त में , 17 जून 1858 को  स्वतंत्रता की बली बेदी पर अपने प्रांण न्यौछावर कर दिये।  बाबा गंगादास ने तुरंत कुटिया को ही चिता बनाकर उनका अंतिम संस्कार कर दिया ताकि अंग्रेज उनको छू भी न सकें। ग्वालियर में आज भी रानी लक्ष्मीबाई की समाधी उनकी गौरवगाथा की याद दिलाती है।

देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली रानी लक्ष्मीबाई के अप्रतिम शौर्य से चकित अंग्रेजों ने भी उनकी प्रशंसा की थी।लड़ाई की रिपोर्ट में ब्रिटिश जनरल ह्यूरोज़ ने टिप्पणी की कि रानी लक्ष्मीबाई अपनी “सुंदरता, चालाकी और दृढ़ता के लिए उल्लेखनीय” और “विद्रोही नेताओं में सबसे खतरनाक” थीं।

आज पूरा देश इस वीरांगना की जयंती पर उसको याद कर रहा है। बहुत कम ही लोगों को मालूम है कि यह वीरांगना काशी के गंगा तट पर अपने नटखट पन की वजह से छबीली के नाम से भी जानी जाती थी। देश की इस महानायिका ने 18 जून 1958 को ग्वालियर में आखरी सांसे ली थी। आज काशी में इस वीरांगना की जन्म स्थली पर स्मारक बनाकर लोगों के अंदर इतिहास को जीवंत रखने की कोशिश की है।

ऐसी विरांगना से आज भी राष्ट्र गर्वित एवं पुलकित है।उनकी देश भक्ती की ज्वाला को काल भी बुझा नही सकता। रानी लक्ष्मीबाई को शब्दों में बाँधा नही जा सकता वो तो पुरे विश्व में अद्मय साहस की परिचायक हैं। उनको शब्दो के माध्यम से याद करने का छोटा सा प्रयास है।भावपूर्ण शब्दाजंली से शत् शत् नमन करते हैं।

“रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,”

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

"जयहिन्द"

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