हिन्दू हूँ पर यकीं करो मैं मुसलमान हो जाऊंगा...!!
अरे मुहम्मद साहब मेरे नबी कहाँ हो कुछ बोलो, जन्नत में बैठे हुसैन कुछ बात करो कुछ मुहं खोलो, लाशें, घायल बदन, खून के कतरे, मंज़र देखो जी, मासूमों के बस्तों पर जेहादी खंज़र देखो जी, नहीं सुनाई दिया तुम्हें क्या नन्हे कासिम का रोना? नहीं दिखाई दिया तुम्हें क्या, खून सना कोना कोना? जली किताबें, टूटे टिफिन, कलम के टुकड़े नहीं दिखे? फटी हुई ड्रेसें, कपडे जूतों के चिथड़े नहीं दिखे? नहीं दिखे क्या क्लासरूम के टूटे रोशनदान तुम्हें? नहीं दिखे क्या उजड़े बचपन,नौनिहाल नादान तुम्हें? देखो तेरे ही बन्दों ने खूब काम अंजाम दिया, खून बहाया बच्चों का फिर नाम इसे इस्लाम दिया, ये टोपी दाढ़ी वाले हैं, हाफ़िज़ भी हैं हाजी भी, बारूदों का इल्म बांटते मुल्ला भी हैं काजी भी, या अल्लाह बता क्या तूने ऐसा ही पैगाम दिया? दुनिया को क्या ऐसा ही मज़हब ऐसा इस्लाम दिया? कोई भी आयत दहशत का राग नही हो सकती है, और शरीयत वहशीपन का दाग नही हो सकती है, हरगिज़ नही, नहीं हरगिज़, ये काम नही हो सकता है, मासूमो का क़त्ल करे इस्लाम नही हो सकता है, मुझे फ़िक्र बस इतनी है कब आंख मुसलमाँ खोलेंगे, कब सड़कों पर आकर दहशत के खिलाफ